आइए जानें राजस्थान के लोक नृत्यों के बारे में

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09-Apr-2022 12+

आइए जानें राजस्थान के लोक नृत्यों के बारे में

साथियों यदि आप राजस्थान की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं तो इसमें सफलता प्राप्त करने के लिए आपको राजस्थान का ज्ञान होना अनिवार्य है। राजस्थान सरकार द्वारा आयोजित की जाने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं के पाठ्यक्रम में राजस्थान का बहुत बड़ा भाग है। जिसमें राजस्थान का इतिहास, कला-संस्कृति, भूगोल आदि के बारे में असंख्य प्रश्न पूछे जाते हैं।

प्राचीनकाल से मनुष्य अपने आनंद के क्षणों में प्रसन्नता से झूम कर अंग भंगिमाओं का अनायास, अनियोजित प्रदर्शन करता आ रहा है। क्षेत्रीय लोगों का उत्साह जो बढ़ती हुई लय के साथ अंग संचालन द्वारा प्रकट होता है उसे ही लोक नृत्य कहा जाता है। राजस्थान के वातावरण, मरुस्थल, पर्वत, जंगल आदि का प्रभाव यहां के लोगों, चरित्र, कार्य, संगीत एवं नृत्य पर भी पड़ता है। इस लेख में हम आपको राजस्थान के लोक-नृत्यों एवं लोक गीतों के बारे में जानकारी देंगे।

 

राजस्थान के लोक नृत्यों को चार भागों में विभाजित किया गया है-

  1. व्यवसायिक लोक नृत्य
  2. क्षेत्रीय लोक नृत्य
  3. जातीय लोक नृत्य
  4. सामाजिक व धार्मिक लोक नृत्य

 

1. व्यवसायिक लोक नृत्य-

 

आजिविका चलाने के लिए पेशेवेर लोगों द्वारा जो नृत्य किए जाते हैं वे व्यवसायिक लोक नृत्य कहलाते हैं। ये नृत्य इसे प्रस्तुत करने वाले कलाकारों या नतृकों के रोजगार का साधन है इसलिए इन्हें व्यवसायिक नृत्य कहा जाता है। राजस्थान के प्रमुख व्यवसायिक नृत्य इस प्रकार हैं-

 

(I) कच्छी घोड़ी नृत्य -

  • राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र एवं डीडवाना, परबतसर, नागौर जिले के पूर्वी भाग में अधिक प्रचलित यह नृत्य पेशेवर जातियों द्वारा विवाह आदी अवसरों पर किया जाता है।
  • इस नृत्य में ढ़ोल, झांझ, बांकिया और थाली जैसे वाद्य यंत्रों का प्रयोग होता है।
  • यह पेशेवर जातियों द्वारा मांगलिक अवसरों पर अपनी कमर पर बांस की घोड़ी को बांधकर किया जाने वाला नृत्य हैं, इसलिए इसे कच्छी घोड़ी कहा जाता है।
  • सरगड़े, कुम्हार, ढोली व भांभी जातियां इस नृत्य में कुशल हैं और आज इसने व्यवसायिक रूप धारण कर लिया है।

 

(II)भवाई नृत्य -

  • भवाई राजस्थान का एक प्रसिद्ध व्यवसायिक नृत्य है। यह नृत्य मेवाड़ की भिवाई जाति द्वारा किया जाता है।
  • यह मूलतः पुरुषों का नृत्य है लेकिन आजकल महिलाएं भी इस नृत्य को कुशलता पूर्वक करती हैं।
  • इस नृत्य में कई रोमांचक क्रियाएं जैसे - सिर पर कई मटके या चरी रखकर तलवार पर नृत्य करना, थाली के किनारों व गिलास पर खड़े होकर नृत्य करना, कांच के टुकड़ों पर नृत्य करना आदि प्रमुख हैं।
  • रूप सिंह शेखावत, दयाराम, तारा शर्मा और श्रेष्ठा शर्मा भवाई के प्रमुख नृत्य कार हैं जिन्होंने देश- विदेश में इसे प्रसिद्धि दिलाई है। बोरी, लोडी, ढोकरी, शंकरिया, सूरदास, बीकाजी, और ढोला-मारू इस नृत्य के प्रमुख प्रसंग है।

 

(III) तेरह ताली नृत्य -

  • राजस्थान का एक और प्रसिद्ध व्यवसायिक नृत्य है तेरह ताली। इस नृत्य का उद्गम स्थल पाली जिले का पादरला गांव माना जाता है।
  • यह नृत्य पाली, नागौर व जैसलमेर जिले की कामड़ जाति की विवाहित महिलाओं द्वारा बाबा रामदेव की आराधना करने के लिए किया जाता है।
  • यह नृत्य मंजीरों की सहायता से किया जाता है। जिसमें 9 मंजीरे दाएं पांव पर, दो हाथों की कोहनी के ऊपर और एक-एक दोनों हाथों में होते हैं।
  • इस तरह कुल 13 मंजीरों को टकराकर विविध ध्वनियां उत्पन्न की जाती है। “मांगीबाई” और “लक्ष्मण दास कामड़” तेरहताली नृत्य के प्रमुख नृत्यकार है।

 

अन्य व्यवसायिक नृत्य इस प्रकार हैं-

  • कालबेलिया के पनिहारी, शंकरिया, बागड़िया नृत्य
  • कंजर जाति का चकरी धाकड़ नृत्य
  • कठपुतली नृत्य

 

2. राजस्थान के क्षेत्रीय लोकनृत्य -

 

जो किसी क्षेत्र विशेष में प्रचलित हों ऐसे नृत्य क्षेत्रीय लोकनृत्य कहलाते हैं और राजस्थान में कई तरह के क्षेत्रीय लोकनृत्य हैं जो कि इस प्रकार हैं-

 

(I) गैर नृत्य

  • यह मेवाड़ व बाड़मेर क्षेत्र का प्रसिद्ध लोक नृत्य है, जो पुरुषों द्वारा सामूहिक रूप से गोल घेरा बनाकर ढोल, बांकिया, थाली आदि वाद्य यंत्रों के साथ हाथों में डंडा लेकर किया जाता है।
  • गोल घेरे में इस नृत्य की संरचना होने के कारण यह “घेर” नाम से जाना जाता था लेकिन अब यह गैर के नाम से जाना जाता है। गैर नृत्य करने वाले नतृकों को “गैरिया” कहा जाता है।
  • यह नृत्य होली के अवसर पर किया जाता है।
  • मेवाड़ के गैरिए नृत्यकार सफेद अंगरखी, धोती व सिर पर केसरिया पगड़ी धारण करते हैं, जबकि बाड़मेर के गैरिए सफेद ओंगी,(लंबी फ्रॉक) और तलवार के लिए चमड़े का पट्टा धारण करते हैं।
  • इसमें पुरुष एक साथ मिलकर वृताकार रूप में नृत्य करते-करते अलग-अलग प्रकार का मंडल बनाते हैं।
  • गैर के अन्य रूप हैदृ आंगी-बांगी(लाखेटा गांव), गैर नृत्य(मरु प्रदेश), तलवारों की गैर नृत्य( मेवाड़-मेनार गांव )।
  • यह मुख्यतः भील जाति की संस्कृति को प्रदर्शित करता है “कणाना” बाड़मेर का प्रसिद्ध गैर नृत्य है।

 

(II) अग्नि नृत्य

  • जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि इस नृत्य को अग्नि अर्थात धधकते अंगारों पर किया जाता है। यह नृत्य केवल पुरुषों द्वारा किया जाता है इस नृत्य में स्त्रियां भाग नहीं लेती।
  • इस नृत्य का उद्गम स्थल कतरियासर (बीकानेर) को माना जाता है। इस नृत्य का आरंभ जसनाथी सम्प्रदाय के लोगों द्वारा किया गया था।
  • जसनाथ जी के मेले में रातीजगे का आयोजन होता है। जहां एक मैदान के बीच खेजड़ी की लकड़ियों का ढे़र लगाकर उसमें आग लगाई जाती है। जब लकड़ियां अंगारों का रूप ले लेती हैं तब पुरुष फतेह-फतेह के उद्घोष के साथ इन अंगारों पर चलते हैं साथ ही अंगारों से खेलना और अंगारों को मुंह में रखना जैसी रोमांचक क्रियाएं करते हैं।
  • इस नृत्य में भाग लेने वाले पुरुष धोती-कुर्ता, पगड़ी और पांव में कड़ा पहनते हैं।

 

(III) गींदड़ नृत्य-

  • यह राजस्थान के प्रमुख लोक नृत्यों में से एक है और शेखावाटी क्षेत्र (चुरू, झुंझुंनू, सीकर) में इसे प्रमुख रूप से किया जाता है।
  • इस नृत्य को होली के 15 दिन पूर्व यानि डांडा रोपण से होली के समापन तक किया जाता है।
  • यह नृत्य भी पुरुष प्रधान ही है और पुरुषों द्वारा इस नृत्य में कई स्वांग रचाए जाते हैं। कुछ पुरुष महिलाओं का रूप धारण कर भी नृत्य करते हैं जिन्हें गणगौर कहा जाता है।
  • नृत्य प्रारंभ करने के लिए एक नगाडची मैदान के बीच मंडप में पहुंचकर प्रार्थना करता है और उसके बाद नृत्य आरंभ होता है।
  • पुरुष अपने दोनों हाथों में दो छोटे डंडे लिए हुए होतें है। नगाड़े की चोट पर वह डंडों को परस्पर टकराकर मंडप के चारों ओर घूमते हुए नृत्य करते हैं।
  • इस नृत्य में विभिन्न प्रकार के स्वांग रचाते हैं जैसे कि- साधु-शिकारी, सेठ-सेठानी, डाकिया-डाकन, दूल्हा-दुल्हन, शिव-पार्वती आदी।

 

(IV) ढोल नृत्य-

  • यह नृत्य जालौर क्षेत्र में सांचलिया संप्रदाय में शादी के अवसर पर पुरुषों द्वारा ढोली, सरगड़ा, माली आदि जातियों द्वारा किया जाने वाला नृत्य है।
  • इस नृत्य की शुरूआत ढोल वादक ‘थाकना’ शैली से करता है जिसमें एक साथ चार-पांच ढोल बजाए जाते है।
  • ज्यों ही “थाकना” समाप्त हो जाता है, अन्य नृत्यकारों में कोई अपने मुंह में तलवार लेकर, कोई अपने हाथों में डंडे लेकर, कोई भुजाओं में रुमाल लटकाता हुआ और शेष सामान्य लयबद्ध अंग संचालन में नृत्य शुरू करते हैं।
  • ‘थाकना’ का शाब्दिक अर्थ है नृत्य के लिए बुलाना या नर्तकों में जोश भरना।
  • जालोर के ढोल नृत्य की प्रसिद्धि के संबंध में सीवाणा गांव के खीमसिंह राठौड़ एवं एक सरगरी जाति की महिला के प्रेम की गौरव गाथा जुड़ी हुई है।

 

(V) बम नृत्य-

  • राजस्थान के मेवात क्षेत्र (भरतपुर, अलवर) का यह नृत्य अपनी लोकरंगी छटा के लिए प्रसिद्ध है।
  • इसे बमरसिया नृत्य के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इसके साथ गाए जाने वाले गाने को रसिया कहते हैं।
  • होली के अवसर पर नई फसल आने की खुशी में पुरुषों द्वारा इस नृत्य को किया जाता है।
  • 'बम' यानि एक विशाल नगाड़ा इस नृत्य का मुख्य वाद्य यंत्र है। इस बम की ताल पर यह नृत्य किया जाता है।
  • वाद्य यंत्रों में नगाड़े के अलावा थाली, चिमटा, ढोलक, मंजीरा, और खडतालो का प्रयोग किया जाता है।

 

(VI)लांगुरिया नृत्य-

  • राजस्थान के करौली जिले के कैला देवी के मेले में किया जाने वाला नृत्य लांगुरिया कहलाता है। लांगुरिया हनुमान जी का लोक स्वरुप है।
  • कैला देवी, हनुमान जी की माता अंजनी का अवतार मानी जाती है। नवरात्रि के दिनों में करौली क्षेत्र में लांगुरिया नृत्य किया जाता है।
  • इस नृत्य में स्त्री-पुरुष सामूहिक रुप से भाग लेते हैं। नृत्य के दौरान नफ़ीरी तथा नौबत बजाई जाती है।
  • इस के दौरान लांगुरिया को संबोधित करके हल्के-फुल्के हास्य व्यंग्य किए जाते हैं।

 

(VII) नाहर नृत्य -

  • भीलवाड़ा जिले के मांडल कस्बे में होलिका दहन के बाद चौत्रमास कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी यानी रंगतेरस पर नाहर नृत्य का आयोजन होता है।
  • इस नृत्य की परंपरा 400 साल से भी अधिक पुरानी है।
  • नृत्य में विभिन्न समाज के पुरुष अपने शरीर पर रुई लपेट कर नाहर का स्वांग रचते हैं और मंदिर में शेषसायी भगवान के सामने ढोल, बांक्या जैसे वाद्य यंत्रों की विशेष धुन पर नृत्य करते हैं।

 

(VIII) चंग नृत्य -

  • यह नृत्य भी पुरुष प्रधान है और शेखावाटी क्षेत्र में होली के समय पुरुषों द्वारा किया जाने वाला सामूहिक नृत्य है।
  • 20-25 पुरुष घेरे में नृत्य करते हुए चंग बजाते हुए धमाल और होली के गीत गाते हैं।

 

(IX) डांडिया नृत्य -

  • राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र (जोधपुर, पाली, जालौर, बीकानेर) में यह नृत्य किया जाता है।
  • गींदड और गैर नृत्य की तरह ही यह नृत्य भी वृत्ताकार है।
  • पुरुष प्रधान इस नृत्य में पुरुषों की टोली घेरा बनाकर नृत्य करती हैं एवं लंबी छड़ों रूपी डांडिया को टकराते हुए गीत गाते हैं।

इनके अलावा राजस्थान के क्षेत्रीय नृत्य इस प्रकार है-

  • बिंदौरी
  • झूमर
  • भैरव
  • खारी
  • लुंबर
  • पेजण
  • झांझी
  • ढप
  • डांग
  • सूकर

 

3. राजस्थान के जातीय लोकनृत्य

राजस्थान में निवास करनी वाली जातियों के द्वारा भी अलग-अलग प्रकार के नृत्य किए जाते हैं। जानते हैं राजस्थान के जातीय नृत्यों के बारे में-

सपेरा जाति

(I) कालबेलिया नृत्य

  • राजस्थान का सुप्रसिद्ध नृत्य है कालबेलिया नृत्य, जिसे कालबेलिया जाति की महिलाओं द्वारा किया जाता है। कालबेलिया एक सपेरा जाति है। इस नृत्य में महिलाएं बड़े घेर वाला काले रंग का घाघरा पहन कर नृत्य करती हैं।
  • नृत्य करने वाली महिलाओं के लहंगे पर काशीदारी की गई होती है, जिस पर कांच, मोतियों और कौड़ियों की झालर लगी होती है। देखने में यह पोशाक और नृत्यांगनाओं का श्रृंगार बेहद आकर्षक लगता है।
  •  पुरुषों द्वारा इस नृत्य में पुंगी और चंग बजाया जाता है। मारवाड़ क्षेत्र में यह काफी लोकप्रिय है।
  • इस नृत्य को विश्व भर में भी पहचान मिली है। इसलिए इसे 2010 में यूनेस्को द्वारा अमूर्त विरासत सूची में शामिल किया गया है।
  • कालबेलिया नृत्य सीखने के किये आमेर के पास हाथी गांव में स्कूल खोला गया है।

 

(II) शंकरिया

  • यह कालबेलियों का प्रेम पर आधारित युगल नृत्य है। इस नृत्य में अंग संचालन बड़ा ही सुंदर होता है ।

 

(III) पणिहारी

  • राजस्थान में कुंए या तालाब से पानी लाने वाली महिलाओं को पणिहारी कहा जाता है। यह कालबेलियों का युगल नृत्य हैं। इस नृत्य के दौरान पणिहारी गीत गाए जाते हैं।

 

(IV) इण्डोणी नृत्य

  • कालबेलिया जाति के स्त्री-पुरुषों द्वारा गोलाकार रुप से पुंगी व खंजरी पर किया जाने वाला नृत्य हैं। इसमें औरतों की पोशाक में मणियों की सजावट कलात्मक होती है।

 

(V) बागड़िया

  • यह कालबेलिया स्त्रियों द्वारा भीख मांगते समय किया जाने वाला नृत्य हैं। इसमें साथ में चंग बजाया जाता है।

 

भील जाति के नृत्य -

(I) गवरी या राई

  • यह राजस्थान का सबसे प्राचीन नृत्य नाटक है। इसमें नृत्य के साथ नाटक का भी मंचन किया जाता है। इसे लोकनाट्य का मेरुनाट्य भी कहते हैं।
  • यह नृत्य पुरुष प्रधान है और डूंगरपुर, बांसवाड़ा, उदयपुर, भीलवाड़ा, एवं सिरोही आदि क्षेत्रों के भील पुरुषों द्वारा किया जाता है।
  • इसको राई नृत्य भी कहा जाता है। इसका प्रमुख आधार शिव और भस्मासुर की कथा है। शिव की अर्धांगिनी गौरी (पार्वती) के नाम के कारण ही इस नृत्य का नाम गवरी पड़ा ।

 

(II) नेजा नृत्य

  • इस नृत्य को मेवाड़ क्षेत्र के भील व मीणा जाति के लोग मिलकर करते हैं। यह भीलों का एक खेल नृत्य है।
  • होली के तीसरे दिन खम्भे को भूमि में रोपकर उसके उपरी सिरे पर नारियल बांधा जाता है इसे ही नेजा कहते हैं।
  • खम्भे से नारियल उतारने वाले पुरुष को घेरकर खड़ी स्त्रियाँ छडियों व कोडों से पीटती है।
  • इस नृत्य के अवसर पर ढोल पर पगाल्या लेना नामक थाप दी जाती है।

इनके अलावा भील जाति के अन्य नृत्य इस प्रकार हैं-

  • गैर नृत्य
  • द्विचक्री नृत्य
  • घूमरा नृत्य
  • हाथीमना नृत्य
  • युद्ध नृत्य

 

गुर्जर जाति के नृत्य

(I) चरी नृत्य -

  • गुर्जर समाज की महिलाओं द्वारा किया जाने वाला नृत्य है चरी नृत्य।
  • इसमें महिलाएं सिर पर चरी रखकर नृत्य करती हैं। इस चरी में कांकड़े (कपास के बीज) डालकर आग लगाई जाती है।
  • नृत्य के दौरान ढोल, थाली, बांकिया आदि यंत्रों का उपयोग किया जाता है।
  • किशनगढ़ की 'फलकूबाई' इस नृत्य की सुप्रसिद्ध नृत्यांगना है।

 

(II) झूमर नृत्य -

  • यह नृत्य पुरुषों का वीर रस प्रदान नृत्य है, इसमें झुमरा नामक वाद्ययंत्र का इस्तेमाल होता है।
  • धार्मिक मेलों आदि के अवसरों पर यह नृत्य गुर्जर व अहीर जातियों के स्त्री व पुरुषों द्वारा किया जाता है।

 

कथौड़ी जनजाति के नृत्य -

(I) होली नृत्य -

  • जैसा की नाम से ही स्पष्ट है कि होली के अवसर पर यह नृत्य किया जाता है।
  • यह कथौड़ी महिलाओं द्वारा किया जाता है। कथौड़ी मेवाड़ क्षेत्र की आदिवासी जाति है।
  • नृत्य में पुरुष ढोलक, धोरिया, पावरी व बांसली का प्रयोग करते हैं।
  • इस नृत्य में 10-15 महिलाएं घेरा बनाकर नृत्य करती हैं। महिलाएं एक-दूसरे के कंधे पर चढ़कर पिरामिड भी बनाती हैं।

 

(II) मावलिया नृत्य -

  • कथौड़ी जनजाति के पुरुषों द्वारा यह नृत्य नवरात्रों में पुरुषों द्वारा किया जाता है, इसमें 10-12 पुरुष भाग लेते हैं।
  • देवी-देवताओं के गीत गाते हुए पुरुष, ढोलक, बांसुरी, तारपी की धुनों पर नृत्य करते हैं।
  • पुरुषों का समूह घेरा बनाकर गोल-गोल नृत्य करता है।

 

4. सामाजिक व धार्मिक नृत्य-

लोक जीवन में विभिन्न मांगलिक अवसरों पर किए जाने वाले नृत्य इस श्रेणी में आते हैं। ये किसी जाति विशेष या क्षेत्र से संबंधित नहीं है इन नृत्यों को पूरे राजस्थान में मांगलिक अवसरों पर किया जाता है।

 

(I) घूमर -

  • घूमर नृत्य राजस्थान का सबसे प्रसिद्ध नृत्य है। इसे लोक 'नृत्यों का सिरमौर', 'नृत्यों का हृदय' एवं 'लोक नृत्यों की आत्मा' भी कहा जाता है।
  • मांगलिक अवसरों एवं उत्सवों के दौरान महिलाओं द्वारा यह नृत्य किया जाता है।
  • हाथों के लचकदार संचालन के साथ शरीर को घुमाकर यह नृत्य किया जाता है, जो देखने में काफी आकर्षक लगता है।
  • नृत्य के दौरान लहंगे का वृत्ताकार घेर फैलता है और यही घूमर का प्रेरणास्त्रोत है।
  • इस नृत्य में ढोल, नगाड़ा, शहनाई आदि वाद्ययंत्रों का प्रयोग होता है।

 

(II) घुड़ला-

  • इस नृत्य का उद्गम क्षेत्र मारवाड़ है लेकिन अब यह पूरे राजस्थान में मांगलिक अवसरों पर महिलाओं के द्वारा किया जाता है।
  • इसमें महिलाएं समूह में नृत्य करती हैं। महिलाएं इसमें 16 श्रृंगार कर अपने सिर पर मटके रख कर नृत्य करती हैं।
  • मटके को ही घुड़ला कहा जाता है जिसमें छिद्र होते हैं व अंदर दीपक जलाया जाता है।
  • अंग संचालन करते हुए महिलाएं धीमे-धीमे नृत्य करती हैं, नृत्य करते हुए उन्हें घुड़ले का संतुलन भी बनाना होता है।
  • नृत्य के साथ ढोल, थाली, बांसुरी, चंग, ढोलक और नौबत आदि वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है।

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